गुरुदेव का अंग
राम-नाम कै पटंतरै, देबे कौं कछु नाहिं।
क्या ले गुर संतोषिए, हौंस रही मन माहिं॥1॥
भावार्थ - सद्गुरु ने मुझे राम का नाम पकड़ा दिया है। मेरे पास ऐसा क्या है उस सममोल का, जो गुरु को दूँ? क्या लेकर सन्तोष करूँ उनका? मन की अभिलाषा मन में ही रह गयी कि, क्या दक्षिणा चढ़ाऊँ? वैसी वस्तु कहाँ से लाऊँ?
सतगुरु लई कमांण करि, बाहण लागा तीर।
एक जु बाह्या प्रीति सूं, भीतरि रह्या शरीर॥2॥
भावार्थ - सदगुरु ने कमान हाथ में ले ली, और शब्द के तीर वे लगे चलाने। एक तीर तो बड़ी प्रीति से ऐसा चला दिया लक्ष्य बनाकर कि, मेरे भीतर ही वह बिंध गया, बाहर निकलने का नहीं अब।
सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार।
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत-दिखावणहार॥3॥
भावार्थ - अन्त नहीं सद्गुरु की महिमा का, और अन्त नहीं उनके किये उपकारों का, मेरे अनन्त लोचन खोल दिये, जिनसे निरन्तर मैं अनन्त को देख रहा हूँ।
बलिहारी गुर आपणैं, द्यौंहाड़ी कै बार।
जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार॥4॥
भावार्थ - हर दिन कितनी बार न्यौछावर करूँ अपने आपको सद्गुरू पर, जिन्होंने एक पल में ही मुझे मनुष्य से परमदेवता बना दिया, और तदाकार हो गया मैं।
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े,काके लागूं पायं।
बलिहारी गुरु आपणे, जिन गोविन्द दिया दिखाय॥5॥
भावार्थ - गुरु और गोविन्द दोनों ही सामने खड़े हैं, दुविधा में पड़ गया हूँ कि किसके पैर पकडूं! सद्गुरु पर न्यौछावर होता हूं कि जिसने गोविन्द को सामने खड़ाकर दिया, गोविन्द से मिला दिया।
ना गुर मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव ।
दुन्यूं बूड़े धार मैं, चढ़ि पाथर की नाव ॥6॥
भावार्थ - लालच का दाँव दोनों पर चल गया, न तो सच्चा गुरु मिला और न शिष्य ही जिज्ञासु बन पाया। पत्थर की नाव पर चढ़कर दोनों ही मझधार में डूब गये।
पीछैं लागा जाइ था, लोक बेद के साथि।
आगैं थैं सतगुर मिल्या, दीपक दीया हाथि॥7॥
भावार्थ - मैं भी औरों की ही तरह भटक रहा था, लोक-वेद की गलियों में। मार्ग में गुरु मिल गये सामने आते हुए और ज्ञान का दीपक पकड़ा दिया मेरे हाथ में। इस उजेले में भटकना अब कैसा?
`कबीर' सतगुर ना मिल्या, रही अधूरी सीष।
स्वांग जती का पहरि करि, घरि घरि माँगे भीष॥8॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं जिन्हें सद्गुरु नहीं मिला उनकी सीख अधूरी ही रह गयी हैं। वे सन्यासी का स्वांग रचकर, भेष बनाकर घर-घर भीख ही माँगते फिरते हैं।
सतगुरु हम सूं रीझि करि, एक कह्या परसंग।
बरस्या बादल प्रेम का, भींजि गया सब अंग॥9॥
भावार्थ - एक दिन सद्गुरु हम पर ऐसे रीझे कि एक रस भरा प्रसंग कह डाला। प्रेम का बादल बरस उठा और उस वर्षा में अंग-अंग भीग गया।
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
सीस दिये जो गुर मिलै, तो भी सस्ता जान॥10॥
भावार्थ - यह शरीर तो बिष की लता है, इसमें बिषफल ही फलेंगे। और गुरु तो अमृत की खान है। सिर चढ़ा देने पर भी सद्गुरु से भेंट हो जाय तो भी यह सौदा सस्ता ही है।
सुमिरण का अंग
भगति भजन हरि नांव है, दूजा दुक्ख अपार।
मनसा बाचा क्रमनां, `कबीर' सुमिरण सार॥1॥
भावार्थ - हरि का नाम-स्मरण ही भक्ति हैं और वही भजन सच्चा हैं; भक्ति के नाम पर सारी साधनाएं केवल दिखावा हैं, और अपार दुःख की हेतु भी। पर स्मरण वह होना चाहिए मन से, बचन से और कर्म से, और यही नाम-स्मरण का सार हैं!
`कबीर कहता जात हूँ, सुणता है सब कोई।
राम करें भल होइगा, नहिंतर भला न होई॥2॥
भावार्थ - मैं हमेशा कहता हूँ, रट लगाये रहता हूँ, सब लोग सुनते भी रहते हैं - यही कि राम का स्मरण करने से ही भला होगा, नहीं तो कभी भला होनेवाला नहीं। पर राम का स्मरण ऐसा कि वह रोम-रोम में रम जाय।
तू तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँ।
वारी फेरी बलि गई ,जित देखौं तित तूं॥3॥
भावार्थ - तू ही है, तू ही हैं' यह करते-करते मैं तू ही हो गयी, हूँ' मुझमें कहीं भी नहीं रह गयी। उसपर न्यौछावर होते-होते मैं समर्पित हो गयी हूँ। जिधर भी नजर जाती है उधर तू-ही-तू दीख रहा है।
`कबीर' सूता क्या करै, काहे न देखै जागि।
जाको संग तैं बीछुड्या, ताही के संग लागि॥4॥
भावार्थ - कबीर अपने आपको चेता रहे हैं, अच्छा हो कि दूसरे भी चेत जायं। अरे, सोया हुआ तू क्या कर रहा है ? जाग जा और अपने साथियों को देख, जो जाग गये हैं। यात्रा लम्बी है, जिनका साथ बिछड़ गया है और तू पिछड़ गया है, उनके साथ तू फिर लग जा।
जिहि घटि प्रीति न प्रेम-रस, फुनि रसना नहीं राम।
ते नर इस संसार में, उपजि खये बेकाम॥5॥
भावार्थ - जिस घट में, जिसके अन्तर में न तो प्रीति है और न प्रेम का रस। और जिसकी रसना पर रामनाम भी नहीं - इस दुनिया में बेकार ही पैदा हुआ वह और बरबाद हो गया।
`कबीर' प्रेम न चषिया, चषि न लीया साव।
सूने घर का पाहुंणां , ज्यूं आया त्यूं जाव॥6॥
भावार्थ - कबीर धिक्कारते हुए कहते हैं - जिसने प्रेम का रस नहीं चखा, और चखकर उसका स्वाद नहीं लिया, उसे क्या कहा जाय? वह तो सूने घर का मेहमान है, जैसे आया था वैसे ही चला गया !
राम पियारा छांड़ि करि, करै आन का जाप।
बेस्यां केरा पूत ज्यूँ, कहै कौन सू बाप॥7॥
भावार्थ - प्रियतम राम को छोड़कर जो दूसरे देवी-देवताओं को जपता है, उनकी आराधना करता है, उसे क्या कहा जाय ? वेश्या का पुत्र किसे अपना बाप कहे ? अनन्यता के बिना कोई गति नहीं।
लूटि सकै तौ लूटियौ, राम-नाम है लूटि।
पीछैं हो पछिताहुगे, यहु तन जैहै छूटि॥8॥
भावार्थ - अगर लूट सको तो लूट लो, जी भर लूटो--यह राम नाम की लूट है। न लूटोगे तो बुरी तरह पछताओगे, क्योंकि तब यह तन छूट जायगा।
लंबा मारग, दूरि घर, विकट पंथ, बहु मार।
कहौ संतो, क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि-दीदार॥ 9॥
भावार्थ - रास्ता लम्बा है, और वह घर दूर है, जहाँ कि पहुँचना है। लम्बा ही नहीं, उबड़-खाबड़ भी है। कितने ही बटमार वहाँ पीछे लग जाते हैं। संत भाइयों, बताओ तो कि हरि का वह दुर्लभ दीदार तब कैसे मिल सकता है?
`कबीर' राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाइ।
फूटा नग ज्यूँ जोड़ि मन, संधे संधि मिलाइ॥10॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं- अमृत-जैसे गुणों को गाकर तू अपने राम को रिझा ले। राम से तेरा मन-बिछुड़ गया है, उससे वैसे ही मिल जा , जैसे कोई फूटा हुआ नग सन्धि-से-सन्धि मिलाकर एक कर लिया जाता है।
उपदेश का अंग
बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार।
दुहुं चूका रीता पड़ैं , वाकूं वार न पार॥1॥
भावार्थ - बैरागी वही अच्छा, जिसमें सच्ची विरक्ति हो, और गृहस्थ वह अच्छा, जिसका हृदय उदार हो। यदि वैरागी के मन में विरक्ति नहीं, और गृहस्थ के मन में उदारता नहीं, तो दोनों का ऐसा पतन होगा कि जिसकी हद नहीं।
`कबीर' हरि के नाव सूं, प्रीति रहै इकतार।
तो मुख तैं मोती झड़ैं, हीरे अन्त न फार॥2॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -- यदि हरिनाम पर अविरल प्रीति बनी रहे, तो उसके मुख से मोती-ही मोती झड़ेंगे, और इतने हीरे कि जिनकी गिनती नहीं। [ हरि भक्त का व्यवहार - बर्ताव सबके प्रति मधुर ही होता है- मन मधुर, वचन मधुर और कर्म मधुर।]
ऐसी बाणी बोलिये, मन का आपा खोइ।
अपना तन सीतल करै, औरन को सुख होइ॥3॥
भावार्थ - अपना अहंकार छोड़कर ऐसी बाणी बोलनी चाहिए कि, जिससे बोलनेवाला स्वयं शीतलता और शान्ति का अनुभव करे, और सुननेवालों को भी सुख मिले।
कोइ एक राखै सावधां, चेतनि पहरै जागि।
बस्तर बासन सूं खिसै, चोर न सकई लागि॥4॥
भावार्थ - पहर-पहर पर जागता हुआ जो सचेत रहता हैं, उसके वस्त्र और बर्तन कैसे कोई ले जा सकता है? चोर तो दूर ही रहेंगे, उसके पीछे नहीं लगेंगे।
जग में बैरी कोइ नहीं, जो मन सीतल होइ।
या आपा को डारिदे, दया करै सब कोइ॥5॥
भावार्थ - हमारे मन में यदि शीतलता हैं, क्रोध नहीं हैं और क्षमा हैं, तो संसार में हमसे किसी का बैर हो नहीं सकता। अथवा अहंकार को निकाल बाहर कर दें, तो हम पर सब कृपा ही करेंगे।
आवत गारी एक है, उलटत होइ अनेक।
कह `कबीर' नहिं उलटिए, वही एक की एक॥6॥
भावार्थ - हमें कोई एक गाली दे और हम उलटकर उसे गालियाँ दें, तो वे गालियाँ अनेक हो जायेंगी। कबीर कहते हैं कि यदि गाली को पलटा न जाय, गाली का जवाब गाली से न दिया जाय, तो वह गाली एक ही रहेगी।
कथनी-करणी का अंग
जैसी मुख तैं नीकसै, तैसी चालै चाल।
पारब्रह्म नेड़ा रहै, पल में करै निहाल॥1॥
भावार्थ - मुँह से जैसी बात निकले, उसीपर यदि आचरण किया जाय, वैसी ही चाल चली जाय, तो भगवान् तो अपने पास ही खड़ा है, और वह उसी क्षण निहाल कर देगा।
पद गाए मन हरषियां, साषी कह्यां अनंद।
सो तत नांव न जाणियां, गल में पड़िया फंद॥2॥
भावार्थ - मन हर्ष में डूब जाता है पद गाते हुए, और साखियाँ कहने में भी आनन्द आता है। लेकिन सारतत्व को नहीं समझा, और हरिनाम का मर्म न समझा, तो गले में फन्दा ही पड़नेवाला है।
मैं जाण्यूं पढिबौ भलो, पढ़बा थैं भलौ जोग।
राम-नाम सूं प्रीति करि, भल भल नींदौ लोग॥3॥
भावार्थ - पहले मैं समझता था कि पोथियों का पढ़ना बड़ा अच्छा है, फिर सोचा कि पढ़ने से योग-साधन कहीं अच्छा है। पर अब तो इस निर्णय पर पहुँचा हूँ कि रामनाम से ही सच्ची प्रीति की जाय, भले ही अच्चै-अच्छे लोग मेरी निन्दा करें।
`कबीर' पढ़िबो दूरि करि, पुस्तक देइ बहाइ।
बावन आषिर सोधि करि, `ररै' `ममै' चित्त लाइ॥4॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं --पढ़ना लिखना दूर कर, किताबों को पानी में बहा दे। बावन अक्षरों में से तू तो सार के ये दो अक्षर ढूँढ़कर ले ले--`रकार' और `मकार'। और इन्हीं में अपने चित्त को लगा दे।
पोथी पढ़ पढ़ जग मुवा, पंडित भया न कोय।
ऐकै आषिर पीव का, पढ़ै सो पंडित होइ॥5॥
भावार्थ - पोथियाँ पढ़-पढ़कर दुनिया मर गई, मगर कोई पण्डित नहीं हुआ। पण्डित तो वही हो सकता है, जिसने प्रियतम प्रभु का केवल एक अक्षर पढ़ लिया।[पाठान्तर है `ढाई आखर प्रेम का' अर्थात प्रेम शब्द के जिसने ढाई अक्षर पढ़ लिये,अपने जीवन में उतार लियर, उसी को पण्डित कहना चाहिए।]
करता दीसै कीरतन, ऊँचा करि-करि तुंड।
जानें-बूझै कुछ नहीं, यौंहीं आंधां रूंड॥6॥
भावार्थ - हमने देखा ऐसों को, जो मुख को ऊँचा करके जोर-जोर से कीर्तन करते हैं। जानते-समझते तो वे कुछ भी नहीं कि क्या तो सार है और क्या असार। उन्हें अन्धा कहा जाय, या कि बिना सिर का केवल रुण्ड?
कामी का अंग
परनारी राता फिरैं, चोरी बिढ़िता खाहिं।
दिवस चारि सरसा रहै, अंति समूला जाहिं॥1॥
भावार्थ - परनारी से जो प्रीति जोड़ते हैं और चोरी की कमाई खाते हैं, भले ही वे चार दिन फूले-फूले फिरें। किन्तु अन्त में वे जड़मूल से नष्ट हो जाते हैं।
परनारि का राचणौं, जिसी लहसण की खानि।
खूणैं बैसि र खाइए, परगट होइ दिवानि॥2॥
भावार्थ - परनारी का साथ लहसुन खाने के जैसा हैं, भले ही कोई किसी कोने में छिपकर खाये, वह अपनी बास से प्रकट हो जाता हैं।
भगति बिगाड़ी कामियाँ, इन्द्री केरै स्वादि।
हीरा खोया हाथ थैं, जनम गँवाया बादि॥3॥
भावार्थ -भक्ति को कामी लोगों ने बिगाड़ डाला हैं, इन्द्रियों के स्वाद में पड़कर, और हाथ से हीरा गिरा दिया, गँवा दिया। जन्म लेना बेकार ही रहा उनका।
कामी अमी न भावई, विष ही कौं लै सोधि।
कुबुद्धि न जाई जीव की, भावै स्यंभ रहौ प्रमोधि॥4॥
भावार्थ - कामी मनुष्य को अमृत पसंद नहीं आता, वह तो जगह-जगह विष को ही खोजता रहता हैं। कामी जीव की कुबुद्धि जाती नहीं, चाहे स्वयं शम्भु भगवान् ही उपदेश दे-देकर उसे समझावें।
कामी लज्या ना करै, मन माहें अहिलाद।
नींद न मांगै सांथरा, भूख न मांगै स्वाद॥5॥
भावार्थ - कामी मनुष्य को लज्जा नहीं आती कुमार्ग पर पैर रखते हुए, मन में बड़ा आह्लाद होता हैं उसे। नींद लगने पर यह नहीं देखा जाता कि बिस्तरा कैसा हैं, और भूखा मनुष्य स्वाद नहीं जानता, चाहे जो खा लेता हैं।
ग्यानी मूल गँवाइया, आपण भये करता।
ताथैं संसारी भला, मन में रहै डरता॥6॥
भावार्थ -ज्ञानी ने अहंकार में पड़कर अपना मूल भी गवाँ दिया, वह मानने लगा कि मैं ही सबका कर्ता-धर्त्ता हूँ। उससे तो संसारी आदमी ही अच्छा, क्योंकि वह डरकर तो चलता है कि कहीं कोई भूल न हो जाय।
चांणक का अंग
इहि उदर कै कारणे, जग जाच्यों निस जाम।
स्वामीं-पणो जो सिरि चढ्यो, सर्यो न एको काम॥1॥
भावार्थ - इस पेट के लिए दिन-रात साधु का भेष बनाकर वह माँगता फिरा, और स्वामीपना उसके सिर पर चढ़ गया। पर पूरा एक भी काम न हुआ - न तो साधु हुआ और न स्वामी ही।
स्वामी हूवा सीतका, पैकाकार पचास।
रामनाम कांठै रह्या, करै सिषां की आस॥2॥
भावार्थ - स्वामी आज-कल मुफ्त में,या पैसे के पचास मिल जाते हैं, मतलब यह कि सिद्धियाँ और चमत्कार दिखाने और फैलाने वाले स्वामी रामनाम को वे एक किनारे रख देते हैं, और शिष्यों से आशा करते हैं लोभ में डूबकर।
कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि धरी खटाइ।
राज-दुबारां यौ फिरै, ज्यूँ हरिहाई गाइ॥3॥
भावार्थ - कलियुग के स्वामी बड़े लोभी हो गये हैं,और उनमें विकार आ गया है, जैसे पीतल की बटलोई में खटाई रख देने से। राज-द्वारों पर ये लोग मान-सम्मान पाने के लिए घूमते रहते हैं, जैसे खेतों में बिगड़ैल गायें घुस जाती हैं।
कलि का स्वामी लोभिया, मनसा धरी बधाइ।
दैंहि पईसा ब्याज कौं, लेखां करतां जाइ॥4॥
भावार्थ - कलियुग का यह स्वामी कैसा लालची हो गया हैं! लोभ बढ़ता ही जाता है इसका। ब्याज पर यह पैसा उधार देता है और लेखा-जोखा करने में सारा समय नष्ट कर देता हैं।
`कबीर' कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोइ।
लालच लोभी मसकरा, तिनकूँ आदर होइ॥5॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - बहुत बुरा हुआ इस कलियुग में, कहीं भी आज सच्चे मुनि नहीं मिलते। आदर हो रहा हैं आज लालचियों का, लोभियों का और मसखरों का।
ब्राह्मण गुरू जगत का, साधू का गुरू नाहिं।
उरझि-पुरझि करि मरि रह्या, चारिउँ बेदां माहिं॥6॥
भावार्थ - ब्राह्मण भले ही सारे संसार का गुरू हो, पर वह साधु का गुरु नहिं हो सकता वह क्या गुरु होगा, जो चारों वेदों में उलझ-पुलझकर ही मर रहा है।
चतुराई सूवै पढ़ी, सोई पंजर माहिं।
फिरि प्रमोधै आन कौं, आपण समझै नाहिं॥7॥
भावार्थ - चतुराई तो रटते-रटते तोते को भी आ गई, फिर भी वह पिंजड़े में कैद हैं। औरों को उपदेश देता हैं, पर खुद कुछ भी नहीं समझ पाता।
तीरथ करि करि जग मुवा, डूँघै पाणीं न्हाइ।
रामहि राम जपंतडां, काल घसीट्यां जाइ॥8॥
भावार्थ - कितने ही ज्ञानाभिमानी तीर्थों में जा-जाकर और डुबकियाँ लगा-लगाकर मर गये जीभ से रामनाम का कोरा जप करने वालों को काल घसीट कर ले गया।
`कबीर' इस संसार कौं, समझाऊँ कै बार।
पूँछ जो पकड़ै भेड़ की, उतर्या चाहै पार॥9॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं--कितनी बार समझाऊँ मैं इस बावली दुनिया को! भेड़ की पूँछ पकड़कर पार उतरना चाहते हैं ये लोग ![अंध-रूढ़ियों में पड़कर धर्म का रहस्य समझना चाहते हैं ये लोग !]
`कबीर' मन फूल्या फिरैं, करता हूँ मैं ध्रंम।
कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रम॥10॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - फूला नहीं समा रहा है वह कि `मैं धर्म करता हूँ, धर्म पर चलता हूँ, चेत नहीं रहा कि अपने इस भ्रम को देख ले कि धर्म कहाँ हैं, जबकि करोड़ों कर्मों का बोझ ढोये चला जा रहा हैं!
चितावणी का अंग
`कबीर' नौबत आपणी, दिन दस लेहु बजाइ।
ए पुर पाटन, ए गली, बहुरि न देखै आइ॥1॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं-- अपनी इस नौबत को दस दिन और बजालो तुम। फिर यह नगर, यह पट्टन और ये गलियाँ देखने को नहीं मिलेंगी? कहाँ मिलेगा ऐसा सुयोग, ऐसा संयोग, जीवन सफल करने का, बिगड़ी बात को बना लेने का
जिनके नौबति बाजती, मैंगल बंधते बारि।
एकै हरि के नाव बिन, गए जनम सब हारि॥2॥
भावार्थ - पहर-पहर पर नौबत बजा करती थी जिनके द्वार पर, और मस्त हाथी जहाँ बँधे हुए झूमते थे। वे अपने जीवन की बाजी हार गये। इसलिए कि उन्होंने हरि का नाम-स्मरण नहीं किया।
इक दिन ऐसा होइगा, सब सूं पड़ै बिछोह।
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होइ॥3॥
भावार्थ - एक दिन ऐसा आयगा ही, जब सबसे बिछुड़ जाना होगा। तब ये बड़े-बड़े राजा और छत्र-धारी राणा क्यों सचेत नहीं हो जाते ? कभी-न-कभी अचानक आ जाने वाले उस दिन को वे क्यों याद नहीं कर रहे?
`कबीर' कहा गरबियौ, काल गहै कर केस।
ना जाणै कहाँ मारिसी, कै घरि कै परदेस॥4॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -यह गर्व कैसा,जबकि काल ने तुम्हारी चोटी को पकड़ रखा हैं? कौन जाने वह तुम्हें कहाँ और कब मार देगा! पता नहीं कि तुम्हारे घर में ही, या कहीं परदेश में।
बिन रखवाले बाहिरा, चिड़िया खाया खेत।
आधा-परधा ऊबरे, चेति सकै तो चेति॥5॥
भावार्थ - खेत एकदम खुला पड़ा है, रखवाला कोई भी नहीं। चिड़ियों ने बहुत कुछ उसे चुग लिया हैं। चेत सके तो अब भी चेत जा, जाग जा, जिससे कि आधा-परधा जो भी रह गया हो, वह बच जाय।
कहा कियौ हम आइ करि, कहा कहैंगे जाइ।
इत के भये न उत के, चाले मूल गंवाइ॥6॥
भावार्थ - हमने यहाँ आकर क्या किया? और साईं के दरबार में जाकर क्या कहेंगे? न तो यहाँ के हुए और न वहाँ के ही - दोनों ही ठौर बिगाड़ बैठे। मूल भी गवाँकर इस बाजार से अब हम बिदा ले रहे हैं।
`कबीर' केवल राम की, तू जिनि छाँड़े ओट।
घण-अहरनि बिचि लौह ज्यूं, घणी सहै सिर चोट॥7॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं, चेतावनी देते हुए - राम की ओट को तू मत छोड़, केवल यही तो एक ओट हैं। इसे छोड़ दिया तो तेरी वही गति होगी, जो लोहे की होती हैं, हथौड़े और निहाई के बीच आकर तेरे सिर पर चोट-पर-चोट पड़ेगी। उन चोटों से यह ओट ही तुझे बचा सकती हैं।
उजला कपड़ा पहरि करि, पान सुपारी खाहिं।
एकै हरि के नाव बिन, बाँधे जमपुरि जाहिं॥8॥
भावार्थ - बढ़िया उजले कपड़े उन्होंने पहन रखे हैं, और पान-सुपारी खाकर मुँह लाल कर लिया हैं अपना। पर यह साज-सिंगार अन्त में बचा नहीं सकेगा, जबकि यमदूत बाँधकर ले जायंगे। उस दिन केवल हरि का नाम ही यम-बंधन से छुड़ा सकेगा।
नान्हा कातौ चित्त दे, महँगे मोल बिकाइ।
गाहक राजा राम है, और न नेड़ा आइ॥9॥
भावार्थ - खूब चित्त लगाकर महीन-से-महीन सूत तू चरखे पर कात, वह बड़े महँगे मोल बिकेगा। लेकिन उसका गाहक तो केवल राम हैं, कोई दूसरा उसका खरीदार पास फटकने का नहीं।
मैं-मैं बड़ी बलाइ है, सकै तो निकसो भाजि।
कब लग राखौ हे सखी, रूई लपेटी आगि॥10॥
भावार्थ - यह मैं -मैं बहुत बड़ी बला हैं। इससे निकलकर भाग सको तो भाग जाओ। अरी सखी, रुई में आग को लपेटकर तू कबतक रख सकेगी? [राग की आग को चतुराई से ढककर भी छिपाया और बुझाया नहीं जा सकता।]
जर्णा का अंग
भारी कहौं तो बहु डरौं, हलका कहूं तौ झूठ।
मैं का जाणौं राम कूं, नैनूं कबहूँ न दीठ॥1॥
भावार्थ - अपने राम को मैं यदि भारी कहता हूँ, तो डर लगता है, इसलिए कि कितना भारी है वह। और, उसे हलका कहता हूँ तो यह झूठ होगा। मैं क्या जानूँ उसे कि वह कैसा है, इन आँखों से तो उसे कभी देखा नहीं।सचमुच वह अनिर्वचनीय है, वाणी की पहुँच नहीं उस तक।
दीठा है तो कस कहूँ, कह्या न को पतियाय।
हरि जैसा है तैसा रहो, तू हरषि-हरषि गुण गाइ॥12॥
भावार्थ - उसे यदि देखा भी है, तो वर्णन कैसे करूँ उसका ? वर्णन करता हूँ तो कौन विश्वास करेगा? हरि जैसा है, वैसा है। तू तो आनन्द में मग्न होकर उसके गुण गाता रह वर्णन के ऊहापोह में मन को न पड़ने दे।
पहुँचेंगे तब कहैंगे ,उमड़ैंगे उस ठांइ।
अजहूँ बेरा समंद मैं, बोलि बिगूचैं कांइ॥3॥
भावार्थ - जब उस ठौर पर पहुँच जायंगे, तब देखेंगे कि क्या कहना है, अभी तो इतना ही कि वहाँ आनन्द-ही-आनन्द उमड़ेगा, और उसमें यह मन खूब खेलेगा। जबकि बेड़ा बीच समुद्र में है, तब व्यर्थ बोल-बोलकर क्यों किसी को दुविधा में डाला जाय कि उस पार हम पहुँच गये हैं!
जीवन-मृतक का अंग
`कबीर मन मृतक भया, दुर्बल भया सरीर।
तब पैंडे लागा हरि फिरै, कहत कबीर, कबीर॥1॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -मेरा मन जब मर गया और शरीर सूखकर कांटा हो गया, तब हरि मेरे पीछे लगे फिरने मेरा नाम पुकार-पुकारकर-`अय कबीर ! अय कबीर!'- उलटे वह मेरा जप करने लगे।
जीवन थैं मरिबो भलौ, जो मरि जानैं कोइ।
मरनैं पहली जे मरै, तो कलि अजरावर होइ॥2॥
भावार्थ - इस जीने से तो मरना कहीं अच्छा; मगर मरने-मरने में अन्तर हैं। अगर कोई मरना जानता हो, जीते-जीते ही मर जाय। मरने से पहले ही जो मर गया, वह दूसरे ही क्षण अजर और अमर हो गया। [जिसने अपनी वासनाओं को मार दिया, वह शरीर रहते हुए भी मृतक अर्थात मुक्त हैं।]
आपा मेट्या हरि मिलै, हरि मेट्या सब जाइ।
अकथ कहाणी प्रेम की, कह्यां न कोउ पत्याइ॥3॥
भावार्थ - अहंकार को मिटा देने से ही हरि से भेंट होती हैं, और हरि को मिटा दिया, भुला दिया, तो हानि-ही-हानि है।प्रेम की कहानी अकथनीय है। यदि इसे कहा जाय तो कौन विश्वास करेगा?
`कबीर' चेरा संत का, दासनि का परदास।
कबीर ऐसैं होइ रह्या, ज्यूं पाऊँ तलि घास॥4॥
भावार्थ - कबीर सन्तों का दास हैं, उनके दासों का भी दास हैं। वह ऐसे रह रहा हैं, जैसे पैरों के नीचे घास रहती हैं।
रोड़ा ह्वै रहो बाट का, तजि पाषंड अभिमान।
ऐसा जे जन ह्वै रहै, ताहि मिलै भगवान॥5॥
भावार्थ - पाखण्ड और अभिमान को छोड़कर तू रास्ते पर का कंकड़ बन जा। ऐसी रहनी से जो बन्दा रहता हैं, उसे ही मेरा मालिक मिलता हैं।
पतिव्रता का अंग
मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर।
तेरा तुझकौं सौंपता, क्या लागै है मोर॥1॥
भावार्थ - मेरे साईं, मुझमें मेरा तो कुछ भी नहीं, जो कुछ भी हैं, वह सब तेरा ही। तब, तेरी ही वस्तु तुझे सौंपते मेरा क्या लगता हैं, क्या आपत्ति हो सकती हैं मुझे?
`कबीर' रेख स्यंदूर की, काजल दिया न जाइ।
नैनूं रमैया रमि रह्या, दूजा कहाँ समाइ॥2॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - आँखों में काजल कैसे लगाया जाय, जबकि उनमें सिन्दूर की जैसी रेख उभर आयी हैं? मेरा रमैया नैनों में रम गया हैं, उनमें अब किसी और को बसा लेने की ठौर नहीं रही। [सिन्दूर की रेख से आशय है विरह-वेदना से रोते-रोते आँखें लाल हो गयी हैं।]
`कबीर' एक न जाण्यां, तो बहु जांण्या क्या होइ।
एक तैं सब होत है, सब तैं एक न होइ॥3॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - यदि उस एक को न जाना, तो इन बहुतों को जानने से क्या हुआ ! क्योंकि एक का ही तो यह सारा पसारा हैं, अनेक से एक थोड़े ही बना हैं।
जबलग भगति सकामता, तबलग निर्फल सेव।
कहै `कबीर' वै क्यूं मिलैं, निहकामी निज देव॥4॥
भावार्थ - भक्ति जबतक सकाम हैं, भगवान की सारी सेवा तबतक निष्फल ही हैं। निष्कामी देव से सकामी साधक की भेंट कैसे हो सकती हैं?
`कबीर' कलिजुग आइ करि, कीये बहुत जो मीत।
जिन दिलबाँध्या एक सूं, ते सुखु सोवै निचींत॥5॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - कलियुग में आकर हमने बहुतों को मित्र बना लिया, क्योंकि (नकली) मित्रों की कोई कमी नहीं। पर जिन्होंने अपने दिल को एक से ही बाँध लिया, वे ही निश्चिन्त सुख की नींद सो सकते हैं।
`कबीर' कूता राम का, मुतिया मेरा नाउं।
गले राम की जेवड़ी, जित कैंचे तित जाउं॥6॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं--मैं तो राम का कुत्ता हूँ, और नाम मेरा मुतिया (मोती) हैं गले में राम की जंजीर पड़ी हुई हैं; उधर ही चला जाता हूँ जिधर वह ले जाता है। [प्रेम के ऐसे बंधन में मौज-ही-मौज हैं।]
पतिबरता मैली भली, काली, कुचिल, कुरूप।
पतिबरता के रूप पर, बारौं कोटि स्वरूप॥7॥
भावार्थ - पतिव्रता मैली ही अच्छी, काली मैली-फटी साड़ी पहने हुए और कुरूप। तो भी उसके रूप पर मैं करोंड़ों सुन्दरियों को न्यौछावर कर देता हूँ।
पतिबरता मैली भली, गले काँच को पोत।
सब सखियन में यों दिपै , ज्यों रवि ससि की जोत॥8॥
भावार्थ - पतिव्रता मैली ही अच्छी, जिसने सुहाग के नाम पर काँच के कुछ गुरिये पहन रखे हैं। फिर भी अपनी सखी-सहेलियों के बीच वह ऐसी दिप रही हैं, जैसे आकाश में सूर्य और चन्द्र की ज्योति जगमगा रही हो।
बेसास का अंग
रचनहार कूं चीन्हि लै, खैबे कूं कहा रोइ।
दिल मंदिर मैं पैसि करि, ताणि पछेवड़ा सोइ॥1॥
भावार्थ - क्या रोता फिरता है खाने के लिए? अपने सरजनहार को पहचान ले न! दिल के मंदिर में पैठकर उसके ध्यान में चादर तानकर तू बेफिक्र सो जा।
भूखा भूखा क्या करैं, कहा सुनावै लोग।
भांडा घड़ि जिनि मुख दिया, सोई पूरण जोग॥2॥
भावार्थ -अरे,द्वार-द्वार पर क्या चिल्लाता फिरता है कि `मैं भूखा हूँ, मैं भूखा हूँ?' भांडा गढ़कर जिसने उसका मुँह बनाया, वही उसे भरेगा, रीता नहीं रखेगा।
`कबीर' का तू चिंतवै, का तेरा च्यंत्या होइ।
अणच्यंत्या हरिजी करैं, जो तोहि च्यंत न होइ॥3॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - क्यों व्यर्थ चिंता कर रहा है? चिंता करने से क्या होगा? जिस बात को तूने कभी सोचा नहीं, जिसकी चिंता नहीं की, उस अ-चिंतित को भी तेरा साईं पूरा कर देगा।
संत न बांधै गाठड़ी, पेट समाता-लेइ।
साईं सूँ सनमुख रहै, जहाँ मांगै तहां देइ॥4॥
भावार्थ - संचय करके संत कभी गठरी नहीं बाँधता। उतना ही लेता हैं, जितने की दरकार पेट को हो। साईं! तू तो सामने खड़ा हैं, जो भी जहाँ माँगूँगा, वह तू वहीं दे देगा।
मानि महातम प्रेम-रस, गरवातण गुण नेह।
ए सबहीं अहला गया, जबहीं कह्या कुछ देह॥5॥
भावार्थ - जब भी किसी ने किसी से कहा कि `कुछ दे दो,' समझ लो कि तब न तो उसका सम्मान रहा, न बड़ाई, न प्रेम-रस, और न गौरव, और न कोई गुण और न स्नेह ही।
मांगण मरण समान है, बिरला बंचै कोई।
कहै `कबीर' रघुनाथ सूं, मति रे मंगावै मोहि॥6॥
भावार्थ- कबीर रघुनाथजी से प्रार्थना करता है कि मुझे किसी से कभी कुछ माँगना न पड़े क्योंकि माँगना मरण के समान है, बिरला ही कोई इससे बचा है।
`कबीर सब जग हंडिया, मांदल कंधि चढ़ाइ।
हरि बिन अपना कोउ नहीं, देखे ठोकि बजाइ॥7॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - सारे संसार में एक मन्दिर से दूसरे मन्दिर का चक्कर मैं काटता फिरा , बहुत भटका कंधे पर कांवड़ रखकर पूजा की सामग्री के साथ। सारे देवी देवताओं को देख लिया, ठोक बजाकर परख लिया, पर हरि को छोड़कर ऐसा कोई नहीं मिला, जिसे मैं अपना कह सकूं।
भेष का अंग
माला पहिरे मनमुषी, ताथैं कछू न होई।
मन माला कौं फेरता, जग उजियारा सोइ॥1॥
भावार्थ -- लोगों ने यह `मनमुखी' माला धारण कर रखी हैं, नहीं समझते कि इससे कोई लाभ होने का नहीं। माला मन ही की क्यों नहीं फेरते ये लोग ? `इधर' से हटाकर मन को `उधर' मोड़ दें, जिससे सारा जगत जगमगा उठे। [ आत्मा का प्रकाश फैल जाय और भर जाय सर्वत्र।]
`कबीर' माला मन की, और संसारी भेष।
माला पहर्यां हरि मिलै, तौ अरहट कै गलि देखि॥2॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - सच्ची माला तो अचंचल मन की ही हैं, बाकी तो संसारी भेष हैं मालाधारियों का। यदि माला पहनने से ही हरि से मिलन होता हो, तो रहट को देखो, हरि से क्या उसकी भेंट हो गई, इतनी बड़ी माला गले में डाल लेने से?
माला पहर्यां कुछ नहीं, भगति न आई हाथ।
माथौ मूँछ मुँडाइ करि, चल्या जगत के साथ॥3॥
भावार्थ - यदि भक्ति तेरे हाथ न लगी, तो माला पहनने से क्या होना-जाना? केवल सिर मुँड़ा लिया और मूँछें मुँड़ा लीं - बाकी व्यवहार तो दुनियादारों के जैसा ही हैं तेरा।
साईं सेती सांच चलि, औरां सूं सुध भाइ।
भावै लम्बे केस करि, भावै घुरड़ि मुंडाइ॥4॥
भावार्थ -स्वामी के प्रति तुम सदा सच्चे रहो, और दूसरों के साथ सहज-सीधे भाव से बरतो फिर चाहे तुम लम्बे बाल रखो या सिर को पूरा मुँड़ा लो। [वह मालिक भेष को नहीं देखता, वह तो सच्चों का गाहक हैं।]
केसों कहा बिगाड़िया, जो मुँडै सौ बार।
मन को काहे न मूंडिये, जामैं बिषय-बिकार॥5॥
भावार्थ -बेचारे इन बालों ने क्या बिगाड़ा तुम्हारा,जो सैकड़ों बार मूँड़ते रहते हो अपने मन को मूँड़ो न, उसे साफ करलो न ,जिसमें विषयों के विकार-ही-विकार भरे पड़े हैं।
स्वांग पहरि सोरहा भया, खाया पीया खूंदि।
जिहि सेरी साधू नीकले, सो तौ मेल्ही मूंदि॥6॥
भावार्थ - वाह! खूब बनाया यह साधु का स्वांग! अन्दर तुम्हारे लोभ भरा हुआ हैं और खाते पीते हो ठूंस-ठूंस कर, जिस गली में से साधु गुजरता हैं, उसे तुमने बन्द कर रखा हैं।
बैसनों भया तौ क्या भया, बूझा नहीं बबेक।
छापा तिलक बनाइ करि, दगध्या लोक अनेक॥7॥
भावार्थ -इस तरह वैष्णव बन जाने से क्या होता हैं, जब कि विवेक को तुमने समझा नहीं! छापे और तिलक लगाकर तुम स्वयं विषय की आग में जलते रहे, और दूसरों को भी जलाया।
तन कों जोगी सब करै, मन कों बिरला कोइ।
सब सिधि सहजै पाइये, जे मन जोगी होइ॥8॥
भावार्थ - तन के योगी तो सभी बन जाते हैं, ऊपरी भेषधारी योगी। मगर मन को योग के रंग में रँगनेवाला बिरला ही कोई होता हैं। यह मन अगर योगी बन जाय, तो सहज ही सारी सिद्धियाँ सुलभ हो जायंगी।
पष ले बूड़ी पृथमीं, झूठे कुल की लार।
अलष बिसार्यो भेष मैं, बूड़े काली धार॥9॥
भावार्थ - किसी-न-किसी पक्ष को लेकर, वाद में पड़कर और कुल की परम्पराओं को अपनाकर यह दुनिया डूब गई हैं। भेष ने `अलख' को भुला दिया। तब काली धार में तो डूबना ही था।
चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात।
एक निसप्रेही निरधार का, गाहक गोपीनाथ॥10॥
भावार्थ - कितनी ही चतुराई करो, उसके सहारे हरि मिलने का नहीं, चतुराई तो सारी - बातों-ही-बातों की हैं। गोपीनाथ तो एक उसी का गाहक हैं, उसीको अपनाता हैं। जो निस्पृह और निराधार होता हैं। [दुनिया की इच्छाओं में फँसे हुए और जहाँ-तहाँ अपना आश्रय खोजनेवाले को दूसरा कौन खरीद सकता हैं, कौन उसे अंगीकार कर सकता हैं?]
मधि का अंग
`कबीर'दुबिधा दूरि करि,एक अंग ह्वै लागि।
यहु सीतल बहु तपति है, दोऊ कहिये आगि॥1॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -- इस दुविधा को तू दूर कर दे - कभी इधर की बात करता हैं, कभी उधर की। एक ही का हो जा। यह अत्यन्त शीतल हैं और वह अत्यंत तप्त - आग दोनों ही हैं। [ दोनों ही `अति' को छोड़कर मध्य का मार्ग तू पकड़ ले।]
दुखिया मूवा दुख कौं, सुखिया सुख कौं झुरि।
सदा अनंदी राम के, जिनि सुख दुख मेल्हे दूरि॥2॥
भावार्थ - दुखिया भी मर रहा हैं, और सुखिया भी एक तो अति अधिक दुःख के कारण, और दूसरा अति अधिक सुख से। किन्तु राम के जन सदा ही आनंद में रहते हैं, क्योंकि उन्होंने सुख और दुःख दोनों को दूर कर दिया हैं।
काबा फिर कासी भया, राम भया रे रहीम।
मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम॥3॥
भावार्थ - काबा फिर से काशी बन गया हैं और राम रहीम बन गया। मोटा आटा मैदा बन गया हैं और कबीर खाने के लिए बैठ गया।
मन का अंग
`कबीर' मारूँ मन कूं, टूक-टूक ह्वै जाइ।
बिष की क्यारी बोइ करि, लुणत कहा पछिताइ॥1॥
भावार्थ - इस मन को मैं ऐसा मारूँगा कि वह टूक-टूक हो जाय। मन की ही करतूत हैं यह, जो जीवन की क्यारी में विष के बीज मैंने बो दिये , उन फलों को तब लेना ही होगा, चाहे कितना ही पछताया जाय।
आसा का ईंधण करूँ, मनसा करूँ बिभूति।
जोगी फेरि फिल करूँ, यौं बिनना वो सूति॥2॥
भावार्थ - आशा को जला देता हूँ ईंधन की तरह, और उस राख को तन पर रमाकर जोगी बन जाता हूँ। फिर जहाँ-जहाँ फेरी लगाता फिरूँगा, जो सूत इक्ट्ठा कर लिया हैं उसे इसी तरह बुनूँगा। [मतलब यह कि आशाएँ सारी जलाकर खाक कर दूँगा और निस्पृह होकर जीवन का क्रम इसी ताने-बाने पर चलाऊँगा।]
पाणी ही तै पातला, धुवां ही तै झीण।
पवनां बेगि उतावला, सो दोसत `कबीर' कीन्ह॥3॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं कि ऐसे के साथ दोस्ती करली हैं मैंने जो पानी से भी पतला है और धुएं से भी ज्यादा झीना हैं। पर वेग और चंचलता उसकी पवन से भी कहीं अधिक हैं। [पूरी तरह काबू में किया हुआ मन ही ऐसा दोस्त हैं।]
`कबीर' तुरी पलाणियां, चाबक लीया हाथि।
दिवस थकां सांई मिलौं, पीछै पड़िहै राति॥4॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -ऐसे घोड़े पर जीन कस ली हैं मैंने, और हाथ में ले लिया हैं चाबुक, कि सांझ पड़ने से पहले ही अपने स्वामी से जा मिलूँ। बाद में तो रात हो जायगी, और मंजिल तक नहीं पहुँच सकूँगा।
मैमन्ता मन मारि रे, घट ही माहैं घेरि।
जबहिं चालै पीठि दे, अंकुस दै-दै फेरि॥5॥
भावार्थ - मद-मत्त हाथी को, जो कि मन हैं, घर में ही घेरकर कुचल दो। अगर यह पीछे को पैर उठाये, तो अंकुश दे-देकर इसे मोड़ लो।
कागद केरी नाव री, पाणी केरी गंग।
कहै कबीर कैसे तिरूँ, पंच कुसंगी संग॥6॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं --नाव यह कागज की हैं, और गंगा में पानी-ही-पानी भरा हैं। फिर साथ पाँच कुसंगियों का हैं, कैसे पार जा सकूँगा? [ पाँच कुसंगियों से तात्पर्य हैं पाँच चंचल इन्द्रियों से।]
मनह मनोरथ छाँड़ि दे, तेरा किया न होइ।
पाणी में घीव नीकसै, तो रूखा खाइ न कोइ॥7॥
भावार्थ - अरे मन! अपने मनोरथों को तू छोड़ दे, तेरा किया कुछ होने-जाने का नहीं। यदि पानी में से ही घी निकलने लगे, तो कौन रूखी रोटी खायगा? [मतलब यह कि मन तो पानी की तरह है, और घी से तात्पर्य है आत्म-दर्शन।]
माया का अंग
`कबीर' माया पापणी, फंध ले बैठी हाटि।
सब जग तौ फंधै पड्या, गया कबीरा काटि॥1॥
भावार्थ - यह पापिन माया फन्दा लेकर फँसाने को बाजार में आ बैठी हैं। बहुत सारों पर फंन्दा डाल दिया हैं इसने। पर कबीर उसे काटकर साफ बाहर निकल आया हरि भक्त पर फंन्दा डालनेवाली माया खुद ही फँस जाती हैं, और वह सहज ही उसे काट कर निकल आता हैं।]
`कबीर' माया मोहनी, जैसी मीठी खांड।
सतगुरु की कृपा भई, नहीं तौ करती भांड॥2॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -यह मोहिनी माया शक्कर-सी स्वाद में मीठी लगती हैं, मुझ पर भी यह मोहिनी डाल देती पर न डाल सकी। सतगुरु की कृपा ने बचा लिया, नहीं तो यह मुझे भांड़ बना-कर छोड़ती। जहाँ-तहाँ चाहे जिसकी चाटुकारी मैं करता फिरता।
माया मुई न मन मुवा, मरि-मरि गया सरीर।
आसा त्रिष्णां ना मुई, यों कहि गया `कबीर'॥3॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -- न तो यह माया मरी और न मन ही मरा, शरीर ही बार-बार गिरते चले गये। मैं हाथ उठाकर कहता हूँ। न तो आशा का अंत हुआ और न तृष्णा का ही।
`कबीर' सो धन संचिये, जो आगैं कूं होइ।
सीस चढ़ावें पोटली, ले जात न देख्या कोइ॥4॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -- उसी धन का संचय करो न, जो आगे काम दे। तुम्हारे इस धन में क्या रखा हैं? गठरी सिर पर रखकर किसी को भी आजतक ले जाते नहीं देखा।
त्रिसणा सींची ना बुझै, दिन दिन बधती जाइ।
जवासा के रूष ज्यूं, घण मेहां कुमिलाइ॥5॥
भावार्थ - कैसी आग हैं यह तृष्णा की ! ज्यौं-ज्यौं इसपर पानी डालो, बढ़ती ही जाती हैं। जवासे का पौधा भारी वर्षा होने पर भी कुम्हला तो जाता हैं, पर मरता नहीं, फिर हरा हो जाता हैं।
कबीर जग की को कहै, भौजलि, बुड़ै दास।
पारब्रह्म पति छाँड़ि करि, करैं मानि की आस॥6॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं-- दुनिया के लोगों की बात कौन कहे, भगवान के भक्त भी भवसागर में डूब जाते हैं। इसीलिए परब्रह्म स्वामी को छोड़कर वे दूसरों से मान-सम्मान पाने की आशा करते हैं।
माया तजी तौ क्या भया, मानि तजी नहीं जाइ।
मानि बड़े मुनियर गिले, मानि सबनि को खाइ॥7॥
भावार्थ - क्या हुआ जो माया को छोड़ दिया, मान-प्रतिष्ठा तो छोड़ी नहीं जा रही। बड़े-बड़े मुनियों को भी यह मान-सम्मान सहज ही निगल गया। यह सबको चबा जाता है, कोई इससे बचा नहीं।
`कबीर' इस संसार का, झूठा माया मोह।
जिहि घरि जिता बधावणा, तिहिं घरि तिता अंदोह॥8॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -- झूठा है संसार का सारा माया और मोह। सनातन नियम यह हैं कि जिस घर में जितनी ही बधाइयाँ बजती हैं, उतनी ही विपदाएँ वहाँ आती हैं।
बुगली नीर बिटालिया, सायर चढ्या कलंक।
और पखेरू पी गये, हंस न बोवे चंच॥9॥
भावार्थ - बगुली ने चोंच डुबोकर सागर का पानी जूठा कर डाला! सागर सारा ही कलंकित हो गया उससे। और दूसरे पक्षी तो उसे पी-पीकर उड़ गये, पर हंस ही ऐसा था, जिसने अपनी चोंच उसमें नहीं डुबोई।
`कबीर' माया जिनि मिले, सौ बरियाँ दे बाँह।
नारद से मुनियर मिले, किसो भरोसौ त्याँह॥10॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -अरे भाई, यह माया तुम्हारे गले में बाहें डालकर भी सौ-सौ बार बुलाये, तो भी इससे मिलना-जुलना अच्छा नहीं। जबकि नारद-सरीखे मुनिवरों को यह समूचा ही निगल गई, तब इसका विश्वास क्या?
रस का अंग
`कबीर' भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आइ।
सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तौ पिया न जाई॥1॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - कलाल की भट्ठी पर बहुत सारे आकर बैठ गये हैं, पर इस मदिरा को एक वही पी सकेगा, जो अपना सिर कलाल को खुशी-खुशी सौंप देगा, नहीं तो पीना हो नहीं सकेगा। [कलाल है सद्गुरु, मदिरा है प्रभु का प्रेम-रस और सिर है अहंकार।]
`कबीर' हरि-रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि।
पाका कलस कुंभार का, बहुरि न चढ़ई चाकि॥2॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - हरि का प्रेम-रस ऐसा छककर पी लिया कि कोई और रस पीना बाकी नहीं रहा। कुम्हार का बनाया जो घड़ा पक गया, वह दोबारा उसके चाक पर नहीं चढ़ता। [मतलब यह कि सिद्ध हो जाने पर साधक पार कर जाता है जन्म और मरण के चक्र को।]
हरि-रस पीया जाणिये, जे कबहुँ न जाइ खुमार।
मैंमंता घूमत रहै, नाहीं तन की सार॥3॥
भावार्थ - हरि का प्रेम-रस पी लिया, इसकी यही पहचान हैं कि वह नशा अब उतरने का नहीं, चढ़ा सो चढ़ा। अपनापन खोकर मस्ती में ऐसे घूमना कि शरीर का भी मान न रहे।
सबै रसाइण मैं किया, हरि सा और न कोइ।
तिल इक घट मैं संचरै, तौ सब तन कंचन होई॥4॥
भावार्थ - सभी रसायनों का सेवन कर लिया मैंने, मगर हरि-रस-जैसी कोई और रसायन नहीं पायी। एक तिल भी घट में, शरीर में, यह पहुँच जाय, तो वह सारा ही कंचन में बदल जाता हैं। [मैल जल जाता हैं वासनाओं का, और जीवन अत्यंत निर्मल हो जाता हैं।]
विरह का अंग
अंदेसड़ा न भाजिसी, संदेसौ कहियां।
कै हरि आयां भाजिसी, कै हरि ही पास गयां॥1॥
भावार्थ - संदेसा भेजते-भेजते मेरा अंदेशा जाने का नहीं, अन्तर की कसक दूर होने की नहीं, यह कि प्रियतम मिलेगा या नहीं, और कब मिलेगा; हाँ यह अंदेशा दूर हो सकता है दो तरह से - या तो हरि स्वयं आजायं, या मैं किसी तरह हरि के पास पहुँच जाऊँ।
यहु तन जालों मसि करों, लिखों राम का नाउं।
लेखणिं करूं करंक की, लिखि-लिखि राम पठाउं॥2॥
भावार्थ - इस तन को जलाकर स्याही बना लूँगी, और जो कंकाल रह जायगा, उसकी लेखनी तैयार कर लूँगी। उससे प्रेम की पाती लिख-लिखकर अपने प्यारे राम को भेजती रहूँगी। ऐसे होंगे वे मेरे संदेसे।
बिरह-भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ।
राम-बियोग ना जिबै जिवै तो बौरा होइ॥3॥
भावार्थ - बिरह का यह भुजंग अंतर में बस रहा हैं, डसता ही रहता हैं सदा, कोई भी मंत्र काम नहीं देता। राम का वियोगी जीवित नहीं रहता , और जीवित रह भी जाय तो वह बावला हो जाता हैं।
सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त।
और न कोई सुणि सकै, कै साईं के चित्त॥4॥
भावार्थ - शरीर यह रबाब सरोद बन गया हैं -एक-एक नस तांत हो गयी हैं। और बजानेवाला कौन हैं इसका? वही विरह, इसे या तो वह साईं सुनता हैं, या फिर बिरह में डूबा हुआ; यह चित्त।
अंषड़ियां झाईं पड़ीं, पंथ निहारि-निहारि।
जीभड़िंयाँ छाला पड़्या, राम पुकारि-पुकारि॥5॥
भावार्थ - बाट जोहते-जोहते आंखों में झाईं पड़ गई हैं, राम को पुकारते-पुकारते जीभ में छाले पड़ गये हैं। [ पुकार यह आर्त्त न होकर विरह के कारण तप्त हो गयी है..और इसीलिए जीभ पर छाले पड़ गये हैं।]
इस तन का दीवा करौ, बाती मेल्यूं जीव।
लोही सींची तेल ज्यूं, कब मुख देखौं पीव॥6॥
भावार्थ - इस तन का दीया बना लूं, जिसमें प्राणों की बत्ती हो! और, तेल की जगह तिल-तिल बलता रहे रक्त का एक-एक कण। कितना अच्छा कि उस दीये में प्रियतम का मुखड़ा कभी दिखायी दे जाय।
`कबीर' हँसणां दूरि करि, करि रोवण सौं चित्त।
बिन रोयां क्यूं पाइए, प्रेम पियारा मित्त॥7॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - वह प्यारा मित्र बिन रोये कैसे किसीको मिल सकता हैं? [रोने-रोने में अन्तर है। दुनिया को किसी चीज के लिए रोना, जो नहीं मिलती या मिलने पर खो जाती है, और राम के विरह का रोना, जो सुखदायक होता हैं।]
जौ रोऊँ तौ बल घटै, हँसौं तो राम रिसाइ।
मन ही माहिं बिसूरणा, ज्यूँ घुँण काठहिं खाइ॥8॥
भावार्थ - अगर रोता हूँ तो बल घट जाता है, विरह तब कैसे सहन होगा? और हँसता हूँ तो मेरे राम रिसा जायंगे। तो न रोते बनता हैं और न हँसते। मन-ही-मन बिसूरना ही अच्छा, जिससे सबकुछ खौखला हो जाय, जैसे काठ घुन लग जाने से।
हांसी खेलौं हरि मिलै, कोण सहै षरसान।
काम क्रोध त्रिष्णां तजै, तोहि मिलै भगवान॥9॥
भावार्थ - हँसी-खेल में ही हरि से मिलन हो जाय, तो कौन व्यथा की शान पर चढ़ना चाहेगा भगवान तो तभी मिलते हैं, जबकि काम, क्रोध और तृष्णा को त्याग दिया जाय।
पूत पियारौ पिता कौं, गौंहनि लागो धाइ।
लोभ-मिठाई हाथि दे, आपण गयो भुलाइ॥10॥
भावार्थ - पिता का प्यारा पुत्र दौड़कर उसके पीछे लग गया। हाथ में लोभ की मिठाई देदी पिता ने। उस मिठाई में ही रम गया उसका मन। अपने-आपको वह भूल गया, पिता का साथ छूट गया।
परबति परबति मैं फिर्या, नैन गँवाये रोइ।
सो बूटी पाऊँ नहीं, जातैं जीवनि होइ॥11॥
भावार्थ - एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर मैं घूमता रहा, भटकता फिरा, रो-रोकर आँखे भी गवां दीं। वह संजीवन बूटी कहीं नहीं मिल रही, जिससे कि जीवन यह जीवन बन जाय, व्यर्थता बदल जाय सार्थकता में।
सुखिया सब संसार है, खावै और सौवे।
दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रौवे॥12॥
भावार्थ - सारा ही संसार सुखी दीख रहा है, अपने आपमें मस्त है वह, खूब खाता है और खूब सोता है।दुखिया तो यह कबीरदास है, जो आठों पहर जागता है और रोता ही रहता है। [धन्य है ऐसा जागना, ओर ऐसा रोना !किस काम का,इसके आगे खूब खाना और खूब सोना!]
जा कारणि में ढूँढ़ती, सनमुख मिलिया आइ।
धन मैली पिव ऊजला, लागि न सकौं पाइ॥13॥
भावार्थ - जीवात्मा कहती है - जिस कारण मैं उसे इतने दिनों से ढूँढ़ रही थी, वह सहज ही मिल गया, सामने ही तो था। पर उसके पैरों को कैसे पकड़ू ? मैं तो मैली हूँ, और मेरा प्रियतम कितना उजला! सो, संकोच हो रहा है।
जब मैं था तब हरि नहीं , अब हरि हैं मैं नाहिं।
सब अंधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माहिं॥14॥
भावार्थ - जबतक यह मानता था कि `मैं हूं', तब तक मेरे सामने हरि नहीं थे। और अब हरि आ प्रगटे, तो मैं नहीं रहा। अँधेरा और उजेला एकसाथ, एक ही समय, कैसे रह सकते हैं? फिर वह दीपक तो अन्तर में ही था।
देवल माहैं देहुरी, तिल जे हैं बिसतार।
माहैं पाती माहिं जल, माहैं पूजणहार॥15॥
भावार्थ - मन्दिर के अन्दर ही देहरी है एक, विस्तार में तिल के मानिन्द। वहीं पर पत्ते और फूल चढ़ाने को रखे हैं, और पूजनेवाला भी तो वहीं पर हैं। [अन्तरात्मा में ही मंदिर हैं, वहीं पर देवता हैं, वहीं पूजा की सामग्री हैं और पुजारी भी वहीं मौजूद हैं।]
संगति का अंग
हरिजन सेती रूसणा, संसारी सूँ हेत।
ते नर कदे न नीपजैं, ज्यूं कालर का खेत॥1॥
भावार्थ - हरिजन से तो रूठना और संसारी लोगों के साथ प्रेम करना - ऐसों के अन्तर में भक्ति-भावना कभी उपज नहीं सकती, जैसे खारवाले खेत में कोई भी बीज उगता नहीं।
मूरख संग न कीजिए, लोहा जलि न तिराइ।
कदली-सीप-भूवंग मुख, एक बूंद तिहँ भाइ॥2॥
भावार्थ - मूर्ख का साथ कभी नहीं करना चाहिए, उससे कुछ भी फलित होने का नहीं। लोहे की नाव पर चढ़कर कौन पार जा सकता हैं? वर्षा की बूँद केले पर पड़ी, सीप में पड़ी और सांप के मुख में पड़ी - परिणाम अलग-अलग हुए- कपूर बन गया, मोती बना और विष बना।
माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंख रही लपटाइ।
ताली पीटै सिरि धुनैं, मीठैं बोई माइ॥3॥
भावार्थ - मक्खी बेचारी गुड़ में धंस गई, फंस गई, पंख उसके चेंप से लिपट गये। मिठाई के लालच में वह मर गई, हाथ मलती और सिर पीटती हुई।
ऊँचे कुल क्या जनमियां, जे करनी ऊँच न होइ।
सोवरन कलस सुरै भर्या, साधू निंदा सोइ॥4॥
भावार्थ - ऊँचे कुल में जन्म लेने से क्या होता हैं, यदि करनी ऊँची न हुई? साधुजन सोने के उस कलश की निन्दा ही करते हैं, जिसमें कि मदरा भरी हो।
`कबिरा' खाई कोट की, पानी पिवै न कोइ।
जाइ मिलै जब गंग से, तब गंगोदक होइ॥5॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - किले को घेरे हुए खाई का पानी कोई नहीं पीता, कौन पियेगा वह गंदला पानी ? पर जब वही पानी गंगा में जाकर मिल जाता है, तब वह गंगोदक बन जाता है, परम पवित्र !
`कबीर' तन पंषो भया, जहाँ मन तहाँ उड़ि जाइ।
जो जैसी संगति करै, सो तैसे फल खाइ॥6॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - यह तन मानो पक्षी हो गया हैं, मन इसे चाहे जहाँ उड़ा ले जाता हैं। जिसे जैसी भी संगति मिलती हैं- संग और कुसंग - वह वैसा ही फल भोगता हैं। [ मतलब यह कि मन ही अच्छी और बुरी संगति मे ले जाकर वैसे ही फल देता हैं।]
काजल केरी कोठड़ी, तैसा यहु संसार।
बलिहारी ता दास की, पैसि र निकसणहार॥7॥
भावार्थ - यह दुनिया तो काजल की कोठरी हैं, जो भी इसमें पैठा, उसे कुछ-न-कुछ कालिख लग ही जायगी। धन्य हैं उस प्रभु-भक्त को, जो इसमें पैठकर बिना कालिख लगे साफ निकल आता हैं।
सम्रथाई का अंग
जिसहि न कोई तिसहि तू, जिस तू तिस ब कोइ।
दरिगह तेरी सांईयां , ना मरूम कोइ होइ॥1॥
भावार्थ - जिसका कहीं भी कोई सहारा नहीं, उसका एक तू ही सहारा हैं। जिसका तू हो गया, उससे सभी नाता जोड़ लेते हैं साईं ! तेरी दरगाह से, जो भी वहाँ पहुँचा, वह महरूम नहीं हुआ, सभी को आश्रय मिला।
सात समंद की मसि करौं, लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं, तऊ हरि गुण लिख्या न जाइ॥2॥
भावार्थ - समंदरों की स्याही बना लूं और सारे ही वृक्षों की लेखनी, और कागज का काम लूँ सारी धरती से, तब भी हरि के अनन्त गुणों को लिखा नहीं जा सकेगा।
अबरन कौं का बरनिये, मोपै लख्या न जाइ।
अपना बाना वाहिया, कहि कहि थाके माइ॥3॥
भावार्थ - उसका क्या वर्णन किया जाय, जो कि वर्णन से बाहर हैं? मैं उसे कैसे देखूँ वह आँख ही नहीं देखने की। सबने अपना-अपना ही बाना पहनाया उसे, और कह-कहकर थक गया उनका अन्तर।
झल बावैं झल दाहिनैं, झलहि माहिं व्यौहार।
आगैं पीछैं झलमई, राखैं सिरजन हार॥4॥
भावार्थ - झाल(ज्वाला) बाईं ओर जल रही हैं, और दाहिनी ओर भी, लपटों ने घेर लिया हैं दुनियाँ के सारे ही व्यवहार को। जहाँ तक नजर जाती हैं, जलती और उठती हुई लपटें ही दिखाई देती हैं। इस ज्वाला में से एक मेरा सिरजनहार ही निकालकर बचा सकता हैं।
सांई मेरा बाणियां, सहजि करै ब्यौपार।
बिन डांडी बिन पालड़ैं, तोले सब संसार॥5॥
भावार्थ - ऐसा बनिया हैं मेरा स्वामी, जिसका व्यापार सहज ही चल रहा है। उसकी तराजू में न तो डांडी है और न पलड़े फिर भी वह सारे संसार को तौल रहा हैं, सबको न्याय दे रहा हैं।
साईं सूं सब होत है, बंदै थैं कुछ नाहिं।
राईं थैं परबत कषै, परबत राई माहिं॥6॥
भावार्थ - स्वामी ही मेरा समर्थ हैं, वह सब कुछ कर सकता हैं उसके इस बन्दे से कुछ भी नहीं होने का। वह राई से पर्वत कर देता हैं और उसके इशारे से पर्वत भी राई में समा जाता हैं।
सांच का अंग
लेखा देणां सोहरा, जे दिल सांचा होइ।
उस चंगे दीवान में, पला न पकड़ै कोइ॥1॥
भावार्थ - दिल तेरा अगर सच्चा हैं, तो लेना-देना सारा आसान हो जायगा। उलझन तो झूठे हिसाब-किताब में आ पड़ती हैं, जब साईं के दरबार में पहुँचेगा, तो वहाँ कोई तेरा पल्ला नहीं पकड़ेगा , क्योंकि सब कुछ तेरा साफ-ही-साफ होगा।
साँच कहूं तो मारिहैं, झूठे जग पतियाइ।
यह जग काली कूकरी, जो छेड़ै तो खाय॥2॥
भावार्थ - सच-सच कह देता हूँ तो लोग मारने दौड़ेंगे, दुनिया तो झूठ पर ही विश्वास करती है। लगता हैं, दुनिया जैसे काली कुतिया हैं, इसे छेड़ दिया, तो यह काट खायेगी।
यहु सब झूठी बंदिगी, बरियाँ पंच निवाज।
सांचै मारे झूठ पढ़ि, काजी करै अकाज॥3॥
भावार्थ - काजी भाई ! तेरी पाँच बार की यह नमाज झूठी बन्दगी हैं, झूठी पढ़-पढ़कर तुम सत्य का गला घोंट रहे हो , और इससे दुनिया की और अपनी भी हानि कर रहे हो।[क्यों नहीं पाक दिल से सच्ची बन्दगी करते हो?]
सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जिस हिरदे में सांच है, ता हिरदै हरि आप॥4॥
भावार्थ - सत्य की तुलना में दूसरा कोई तप नहीं, और झूठ के बराबर दूसरा पाप नहीं। जिसके हृदय में सत्य रम गया, वहाँ हरि का वास तो सदा रहेगा ही।
प्रेम-प्रीति का चोलना, पहिरि कबीरा नाच।
तन-मन तापर वारहूँ, जो कोइ बोलै सांच॥5॥
भावार्थ - प्रेम और प्रीति का ढीला-ढाला कुर्ता पहनकर कबीर मस्ती में नाच रहा हैं, और उसपर तन और मन की न्यौछावर कर रहा हैं, जो दिल से सदा सच ही बोलता हैं।
काजी मुल्लां भ्रंमियां, चल्या दुनीं कै साथ।
दिल थैं दीन बिसारिया, करद लई जब हाथ॥6॥
भावार्थ - ये काजी और मुल्ले तभी दीन के रास्ते से भटक गये और दुनियादारों के साथ-साथ चलने लगे, जब कि इन्होंने जिबह करने के लिए हाथ में छुरी पकड़ ली दीन के नाम पर।
साईं सेती चोरियां, चोरां सेती गुझ।
जाणैंगा रे जीवणा, मार पड़ैगी तुझ॥7॥
भावार्थ - वाह ! क्या कहने हैं, साईं से तो तू चोरी और दुराव करता हैं और दोस्ती कर ली हैं चोरों के साथ ! जब उस दरबार में तुझ पर मार पड़ेगी, तभी तू असलियत को समझ सकेगा।
खूब खांड है खीचड़ी, माहि पड्याँ टुक लूण।
पेड़ा रोटी खाइ करि, गल कटावे कूण॥8॥
भावार्थ - क्या ही बढ़िया स्वाद हैं मेरी इस खिचड़ी का! जरा-सा, बस, नमक डाल लिया हैं पेड़े और चुपड़ी रोटियाँ खा-खाकर कौन अपना गला कटाये?
साध का अंग
निरबैरी निहकामता, साईं सेती नेह।
विषिया सूं न्यारा रहै, संतनि का अंग एह॥1॥
भावार्थ - कोई पूछ बैठे तो सन्तों के लक्षण ये हैं- किसी से भी बैर नहीं, कोई कामना नहीं, एक प्रभु से ही पूरा प्रेम। और विषय-वासनाओं में निर्लेपता।
संत न छांड़ै संतई, जे कोटिक मिलें असंत।
चंदन भुवंगा बैठिया, तउ सीतलता न तजंत॥2॥
भावार्थ - करोड़ों ही असन्त आजायं, तोभी सन्त अपना सन्तपना नहीं छोड़ता। चन्दन के वृक्ष पर कितने ही साँप आ बैठें, तो भी वह शीतलता को नहीं छोड़ता।
गांठी दाम न बांधई, नहिं नारी सों नेह।
कह `कबीर' ता साध की, हम चरनन की खेह॥3॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं कि हम ऐसे साधु के पैरों की धूल बन जाना चाहते हैं, जो गाँठ में एक कौड़ी भी नहीं रखता और नारी से जिसका प्रेम नहीं।
सिहों के लेहँड़ नहीं, हंसों की नहीं पाँत।
लालों की नहि बोरियाँ, साध न चलैं जमात॥4॥
भावार्थ - सिंहों के झुण्ड नहीं हुआ करते और न हंसों की कतारें। लाल-रत्न बोरियों में नहीं भरे जाते, और जमात को साथ लेकर साधु नहिं चला करते।
जाति न पूछौ साध की, पूछ लीजिए ग्यान।
मोल करौ तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥5॥
भावार्थ -क्या पूछते हो कि साधु किस जाति का हैं? पूछना हो तो उससे ज्ञान की बात पूछोतलवार खरीदनी हैं, तो उसकी धार पर चढ़े पानी को देखो, उसके म्यान को फेंक दो, भले ही वह बहुमूल्य हो।
`कबीर' हरि का भावता, झीणां पंजर तास।
रैणि न आवै नींदड़ी, अंगि न चढ़ई मांस॥6॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -हरि के प्यारे का शरीर तो देखो-पंजर ही रह गया हैं बाकी। सारी ही रात उसे नींद नहीं आती, और अंग पर मांस नहीं चढ़ रहा।
राम बियोगी तन बिकल, ताहि न चीन्हे कोइ।
तंबोली के पान ज्यूं , दिन-दिन पीला होइ॥7॥
भावार्थ - पूछते हो कि राम का वियोग होता कैसा हैं? विरह में वह व्यथित रहता हैं, देखकर कोई पहचान नहीं पाता कि वह कौन हैं? तम्बोली के पान की तरह, बिना सींचे, दिन-दिन वह पीला पड़ता जाता हैं।
काम मिलावे राम कूं, जे कोई जाणै राखि।
`कबीर' बिचारा क्या कहै, जाकी सुखदेव बोलै साखि॥8॥
भावार्थ - हाँ,राम से काम भी मिला सकता हैं - ऐसा काम, जिसे कि नियंत्रण में रखा जाय। यह बात बेचारा कबीर ही नहीं कह रहा हैं, शुकदेव मुनि भी साक्षी भर रहे हैं। [ आशय `धर्म से अविरुद्ध' काम से हैं, अर्थात् भोग के प्रति अनासक्ति और उसपर नियंत्रण।]
जिहिं हिरदे हरि आइया, सो क्यूं छानां होइ।
जतन-जतन करि दाबिये, तऊ उजाला सोइ॥9॥
भावार्थ - जिसके अन्तर में हरि आ बसा, उसके प्रेम को कैसे छिपाया जा सकता हैं? दीपक को जतन कर-कर कितना ही छिपाओ, तब भी उसका उजेला तो प्रकट हो ही जायगा।[रामकृष्ण परमहंस के शब्दों में चिमनी के अन्दर से फानुस का प्रकाश छिपा नहीं रह सकता।]
फाटै दीदै में फिरौं, नजरि न आवै कोइ।
जिहि घटि मेरा साँईयाँ, सो क्यूं छाना होइ॥10॥
भावार्थ - कबसे मैं आँखें फाड़-फाड़कर देख रहा हूँ कि ऐसा कोई मिल जाय, जिसे मेरे साईं का दीदार हुआ हो। वह किसी भी तरह छिपा नहीं रह जायगा, नजर पर चढ़े तो!
पावकरूपी राम है, घटि-घटि रह्या समाइ।
चित चकमक लागै नहीं, ताथै धूवाँ ह्वै-ह्वै जाइ॥11॥
भावार्थ - मेरा राम तो आग के सदृश हैं, जो घट-घट में समा रहा हैं। वह प्रकट तभी होगा, जब कि चित्त उसपर केन्द्रित हो जायगा। चकमक पत्थर की रगड़ बैठ नहीं रही, इससे केवल धुँवा उठ रहा हैं। तो आग अब कैसे प्रकटे?
`कबीर' खालिक जागिया, और न जागै कोइ।
कै जगै बिषई विष-भर्या, कै दास बंदगी होइ॥12॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -जाग रहा है, तो मेरा वह खालिक ही, दुनिया तो गहरी नींद में सो रही हैं, कोई भी नहीं जाग रहा। हाँ, ये दो ही जागते हैं - या तो विषय के जहर में डूबा हुआ कोई, या फिर साईं का बन्दा, जिसकी सारी रात बंदगी करते- करते बीत जाती हैं।
पुरपाटण सुवस बसा, आनन्द ठांयैं ठांइ।
राम-सनेही बाहिरा, उलजंड़ मेरे भाइ॥13॥
भावार्थ - मेरी समझ में वे पुर और वे नगर वीरान ही हैं, जिनमें राम के स्नेही नहीं बस रहे, यद्यपि उनको बड़े सुन्दर ढंग से बनाया और बसाया गया है और जगह-जगह जहाँ आनन्द-उत्सव हो रहे हैं।
जिहिं घरि साध न पूजि, हरि की सेवा नाहिं।
ते घर मड़हट सारंषे, भूत बसै तिन माहिं॥14॥
भावार्थ - जिस घर में साधु की पूजा नहीं, और हरि की सेवा नहीं होती, वह घर तो मरघट हैं, उसमें भूत-ही-भूत रहते हैं।
हैवर गैवर सघन धन, छत्रपति की नारि।
तास पटंतर ना तूलै, हरिजन की पनिहारि॥15॥
भावार्थ - हरि-भक्त की पनिहारिन की बराबरी छत्रधारी की रानी भी नहीं कर सकती। ऐसे राजा की रानी,जो अच्छे-से-अच्छे घोड़ों और हाथियों का स्वामी हैं, और जिसका खजाना अपार धन-सम्पदा से भरा पड़ा हैं।
क्यूं नृप-नारी नींदिये, क्यूं पनिहारी कौं मान।
वा मांग संवारे पीव कौं, या नित उठि सुमिरै राम॥26॥
भावार्थ - रानी को यह नीचा स्थान क्यों दिया गया, और पनिहारिन को इतना ऊँचा स्थान? इसलिए कि रानी तो अपने राजा को रिझाने के लिए मांग सँवारती हैं, सिंगार करती हैं और वह पनिहारिन नित्य उठकर अपने राम का सुमिरन।
`कबीर कुल तौ सो भला, जिहि कुल उपजै दास।
जिहिं कुल दास न ऊपजै, सो कुल आक-पलास॥27॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं-- कुल तो वही श्रेष्ठ है, जिसमें हरि-भक्त जन्म लेता हैं। जिस कुल में हरि-भक्त नहीं जनमता, वह कुल आक और पलास के समान व्यर्थ है।
साध-असाध का अंग
जेता मीठा बोलणा, तेता साध न जाणि।
पहली थाह दिखाइ करि, उंडै देसी आणि॥1॥
भावार्थ - उनको वैसा साधु न समझो, जैसा और जितना वे मीठा बोलते हैं। पहले तो नदी की थाह बता देते हैं कि कितनी और कहाँ है, पर अन्त में वे गहरे में डुबो देते हैं। [सो मीठी-मीठी बातों में न आकर अपने स्वयं के विवेक से काम लिया जाये।]
उज्ज्वल देखि न धीजिये, बग ज्यूं मांडै ध्यान।
धौरे बैठि चपेटसी, यूं ले बूड़ै ग्यान॥2॥
भावार्थ - ऊपर-ऊपर की उज्ज्वलता को देखकर न भूल जाओ, उस पर विश्वास न करो। उज्ज्वल पंखों वाला बगुला ध्यान लगाये बैठा हैं, कोई भी जीव-जन्तु पास गया, तो उसकी चपेट से छूटने का नहीं।[दम्भी का दिया ज्ञान भी मंझधार में डुबो देगा।]
`कबीर' संगत साध की, कदे न निरफल होइ।
चंदन होसी बांवना,नींब न कहसी कोइ॥3॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - साधु की संगति कभी भी व्यर्थ नहीं जाती, उससे सुफल मिलता ही हैं। चन्दन का वृक्ष बावना अर्थात् छोटा-सा होता हैं, पर उसे कोई नीम नहीं कहता, यद्यपि वह कहीं अधिक बड़ा होता हैं।
`कबीर' संगति साध की, बेगि करीजै जाइ।
दुर्मति दूरि गंवाइसी, देसी सुमति बताइ॥4॥
भावार्थ - साधु की संगति जल्दी ही करो, भाई, नहीं तो समय निकल जायगा। तुम्हारी दुर्बुद्धि उससे दूर हो जायगी और वह तुम्हें सुबुद्धि का रास्ता पकड़ा देगी।
मथुरा जाउ भावै द्वारिका, भावै जाउ जगनाथ।
साध-संगति हरि-भगति बिन, कछू न आवै हाथ॥5॥
भावार्थ - तुम मथुरा जाओ, चाहे द्वारिका, चाहे जगन्नाथपुरी, बिना साधु-संगति और हरि-भक्ति के कुछ भी हाथ आने का नहीं।
मेरे संगी दोइ जणा, एक वैष्णौ एक राम।
वो है दाता मुकति का, वो सुमिरावै नाम॥6॥
भावार्थ - मेरे तो ये दो ही संगी साथी हैं - एक तो वैष्णव, और दूसरा राम। राम जहाँ मुक्ति का दाता है, वहाँ वैष्णव नाम-स्मरण कराता हैं। तब और किसी साथी से मुझे क्या लेना-देना?
`कबीर' बन बन में फिरा, कारणि अपणैं राम।
राम सरीखे जन मिले, तिन सारे सबरे काम॥7॥
भावार्थ -कबीर कहते हैं - अपने राम को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते एक बन में से मैं दूसरे बन में गया, जब वहाँ मुझे स्वयं राम के सरीखे भक्त मिल गये, तो उहोंने मेरे सारे काम बना दिये। मेरा वन वन का भटकना तभी सफल हुआ।
जानि बूझि सांचहि तजै, करैं झूठ सूं नेहु।
ताकी संगति रामजी, सुपिनें ही जिनि देहु॥8॥
भावार्थ -जो मनुष्य जान-बूझकर सत्य को छोड़ देता है, और असत्य से नाता जोड़ लेता है। हे राम! सपने में भी कभी मुझे उसका साथ न देना।
`कबीर' तास मिलाइ, जास हियाली तू बसै।
नहिंतर बेगि उठाइ, नित का गंजन को सहै॥9॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - मेरे साईं, मुझे तू किसी ऐसे से मिला दे, जिसके हृदय में तू बस रहा हो, नहीं तो दुनिया से मुझे जल्दी ही उठा ले। रोज-रोज की यह पीड़ा कौन सहे?
सूरातन का अंग
गगन दमामा बाजिया, पड्या निसानैं घाव।
खेत बुहार्या सूरिमै, मुझ मरणे का चाव॥1॥
भावार्थ - गगन में युद्ध के नगाड़े बज उठे, और निशान पर चोट पड़ने लगी। शूरवीर ने रणक्षेत्र को झाड़-बुहारकर तैयार कर दिया, तब कहता हैं कि `अब मुझे कट-मरने का उत्साह चढ़ रहा हैं।'
`कबीर' सोई सूरिमा, मन सूं मांडै झूझ।
पंच पयादा पाड़ि ले, दूरि करै सब दूज॥2॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - सच्चा सूरमा वह हैं, जो अपने वैरी मन से युद्ध ठान लेता हैं, पाँचों पयादों को जो मार भगाता हैं, और द्वैत को दूर कर देता हैं। [ पाँच पयादे, अर्थात काम, क्रोध, लोभ, मोह और मत्सर। द्वैत अर्थात् जीव और ब्रह्म के बीच भेद-भावना।]
`कबीर' संसा कोउ नहीं, हरि सूं लाग्गा हेत।
काम क्रोध सूं झूझणा, चौड़ै मांड्या खेत॥3॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -- मेरे मन में कुछ भी संशय नहीं रहा, और हरि से लगन जुड़ गई। इसीलिए चौड़े में आकर काम और क्रोध से जूझ रहा हूँ रण-क्षेत्र में।
सूरा तबही परषिये, लड़ै धणी के हेत।
पुरिजा-पुरिजा ह्वै पड़ै, तऊ न छांड़ै खेत॥4॥
भावार्थ - शूरवीर की तभी सच्ची परख होती है, जब वह अपने स्वामी के लिए जूझता हैं। पुर्जा-पुर्जा कट जाने पर भी वह युद्ध के क्षेत्र को नहीं छोड़ता।
अब तौ झूझ्या हीं बणै, मुड़ि चाल्यां घर दूर।
सिर साहिब कौं सौंपतां, सोच न कीजै सूर॥5॥
भावार्थ - अब तो झूझते बनेगा, पीछे पैर क्या रखना? अगर यहाँ से मुड़ोगे तो घर तो बहुत दूर रह गया हैं। साईं को सिर सौंपते हुए सूरमा कभी सोचता नहीं, कभी हिचकता नहीं।
जिस मरनैं थैं जग डरै, सो मेरे आनन्द।
कब मरिहूं, कब देखिहूं पूरन परमानंद॥6॥
भावार्थ - जिस मरण से दुनिया डरती हैं, उससे मुझे तो आनन्द होता हैं, कब मरूँगा और कब देखूँगा मैं अपने पूर्ण सच्चिदानन्द को!
कायर बहुत पमांवहीं, बहकि न बोलै सूर।
काम पड्यां हीं जाणिये, किस मुख परि है नूर॥7॥
भावार्थ - बड़ी-बड़ी डींगे कायर ही हाँका करते हैं, शूरवीर कभी बहकते नहीं। यह तो काम आने पर ही जाना जा सकता हैं कि शूरवीरता का नूर किस चेहरे पर प्रकट होता हैं।
`कबीर' यह घर पेम का, खाला का घर नाहिं।
सीस उतारे हाथि धरि, सो पैसे घर माहिं॥8॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - यह प्रेम का घर हैं, किसी खाला का नहीं, वही इसके अन्दर पैर रख सकता हैं, जो अपना सिर उतारकर हाथ पर रखले। [ सीस अर्थात अहंकार। पाठान्तर हैं `भुइं धरै'। यह पाठ कुछ अधिक सार्थक जचता हैं। सिर को उतारकर जमीन पर रख देना, यह हाथ पर रख देने से कहीं अधिक शूर-वीरता और निरहंकारिता को व्यक्त करता हैं।]
`कबीर' निज घर प्रेम का, मारग अगम अगाध।
सीस उतारि पग तलि धरै, तब निकट प्रेम का स्वाद॥9॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -अपना खुद का घर तो इस जीवात्मा का प्रेम ही हैं। मगर वहाँ तक पहुँचने का रास्ता बड़ा विकट है, और लम्बा इतना कि उसका कहीं छोर ही नहीं मिल रहा। प्रेम रस का स्वाद तभी सुगम हो सकता हैं, जब कि अपने सिर को उतारकर उसे पैरों के नीचे रख दिया जाय।
प्रेम न खेतौं नीपजै, प्रेम न हाटि बिकाइ।
राजा परजा जिस रुचै, सिर दे सो ले जाइ॥10॥
भावार्थ - अरे भाई ! प्रेम खेतों में नहीं उपजता, और न हाट-बाजार में बिका करता हैं यह महँगा हैं और सस्ता भी - यों कि राजा हो या प्रजा, कोई भी उसे सिर देकर खरीद ले जा सकता हैं।
`कबीर' घोड़ा प्रेम का, चेतनि चढ़ि असवार।
ग्यान खड़ग गहि काल सिरि, भली मचाई मार॥11॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - क्या ही मार-धाड़ मचा दी हैं इस चेतन शूरवीर ने।सवार हो गया हैं प्रेम के घोड़े पर। तलवार ज्ञान की ले ली हैं, और काल-जैसे शत्रु के सिर पर वह चोट- पर-चोट कर रहा हैं।
जेते तारे रैणि के, तेतै बैरी मुझ।
धड़ सूली सिर कंगुरैं, तऊ न बिसारौं तुझ॥12॥
भावार्थ - मेरे अगर उतने भी शत्रु हो जायं, जितने कि रात में तारे दीखते हैं, तब भी मेरा धड़ सूली पर होगा और सिर रखा होगा गढ़ के कंगूरे पर, फिर भी मैं तुझे भूलने का नहीं।
सिरसाटें हरि सेविये, छांड़ि जीव की बाणि।
जे सिर दीया हरि मिलै, तब लगि हाणि न जाणि॥13॥
भावार्थ - सिर सौंपकर ही हरि की सेवा करनी चाहिए। जीव के स्वभाव को बीच में नहीं आना चाहिए। सिर देने पर यदि हरि से मिलन होता हैं, तो यह न समझा जाय कि वह कोई घाटे का सौदा हैं।
`कबीर' हरि सबकूं भजै, हरि कूं भजै न कोइ।
जबलग आस सरीर की, तबलग दास न होइ॥14॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -हरि तो सबका ध्यान रखता हैं, सबका स्मरण करता हैं, पर उसका ध्यान-स्मरण कोई नहीं करता। प्रभु का भक्त तबतक कोई हो नहीं सकता, जबतक देह के प्रति आशा और आसक्ति हैं।
भ्रम-बिधोंसवा का अंग
जेती देखौं आत्मा, तेता सालिगराम।
साधू प्रतषि देव हैं, नहीं पाथर सूं काम॥1॥
भावार्थ - जितनी ही आत्माओं को देखता हूँ, उतने ही शालिग्राम दीख रहे हैं। प्रत्यक्ष देव तो मेरे लिए सच्चा साधु हैं। पाषाण की मूर्ति पूजने से क्या बनेगा मेरा?
जप तप दीसैं थोथरा, तीरथ ब्रत बेसास।
सूवै सैंबल सेविया, यौं जग चल्या निरास॥2॥
भावार्थ - कोरा जप और तप मुझे थोथा ही दिखायी देता हैं, और इसी तरह तीर्थों और व्रतों पर विश्वास करना भी। सुवे ने भ्रम में पड़कर सेमर के फूल को देखा, पर उसमें रस न पाकर निराश हो गया वैसी ही गति इस मिथ्या-विश्वासी संसार की हैं।
तीरथ तो सब बेलड़ी, सब जग मेल्या छाइ।
`कबीर' मूल निकंदिया, कौंण हलाहल खाइ॥3॥
भावार्थ - तीर्थ तो यह ऐसी अमरबेल है, जो जगत रूपी वृक्ष पर बुरी तरह छा गई हैं। कबीर ने इसकी जड़ ही काट दी हैं, यह देखकर कि कौन विष का पान करे!
मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि।
दसवां द्वारा देहुरा, तामैं जोति पिछाणि॥4॥
भावार्थ - मेरा मन ही मेरी मथुरा है, और दिल ही मेरी द्वारिका हैं, और यह काया मेरी काशी हैं। दसवाँ द्वार वह देवालय है, जहाँ आत्म-ज्योति को पहचाना जाता हैं। [ दसवें द्वार से तात्पर्य है, योग के अनुसार ब्रह्मरन्ध्र से।]
`कबीर' दुनिया देहुरै, सीस नवांवण जाइ।
हिरदा भीतर हरि बसै, तू ताही सौं ल्यौ लाइ॥5॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं --यह नादान दुनिया, भला देखो तो, मन्दिरों में माथा टेकने जाती हैं। यह नहीं जानती कि हरि का वास तो हृदय में हैं, तब वहीं पर क्यों न लौ लगायी जाय?
विविध
पाइ पदारथ पेलि करि, कंकर लीया हाथि।
जोड़ी बिछटी हंस की, पड्या बगां के साथि॥1॥
भावार्थ -अनमोल पदार्थ जो मिल गया था, उसे तो छोड़ दिया और कंकड़ हाथ में ले लिया। हंसों के साथ से बिछुड़ गया और बगुलों के साथ हो लिया। [तात्पर्य यह कि आखिरी मंजिल तक पहुँचते-पहुँचते साधक यात्रियों का साथ छूट जाने और सिद्धियों के फेर में पड़ जाने से यह जीव फिर दुनियांदारी की तरफ लौट आया।]
हरि हीरा, जन जौहरी, ले ले माँडी हाटि।
जब र मिलैगा पारिषी, तब हरि हीरां की साटि॥2॥
भावार्थ - हरि ही हीरा हैं, और जौहरी हैं हरि का भक्त हीरे को हाट-बाजार में बेच देने के लिए उसने दूकान लगा रखी हैं, वही और तभी इसे कोई खरीद सकेगा, जबकि सच्चे पारखी अर्थात् सद्गुरु से भेंट हो जायगी
बारी बारी आपणीं, चले पियारे म्यंत।
तेरी बारी रे जिया , नेड़ी आवै निंत॥3॥
भावार्थ - अपने प्यारे संगी-साथी और मित्र बारी-बारी से विदा हो रहे हैं, अब, मेरे जीव, तेरी भी बारी रोज-रोज नजदीक आती जा रही हैं।
जो ऊग्या सो आंथवै, फूल्या सो कुमिलाइ।
जो चिणियां सो ढहि पड़ै, जो आया सो जाइ॥4॥
भावार्थ - जिसका उदय हुआ, उसका अस्त होगा ही; जो फूल खिल उठा, वह कुम्हलायगा ही; जो मकान चिना गया, वह कभी-न-कभी तो गिरेगा ही; और जो भी दुनियाँ में आया, उसे एक न एक दिन कूच करना ही हैं।
गोव्यंद के गुण बहुत हैं, लिखे जु हिरदै मांहिं।
डरता पाणी ना पीऊँ , मति वै धोये जाहिं॥5॥
भावार्थ - कितने सारे गोविन्द के गुण मेरे हृदय में लिखे हुए हैं, कोई गिनती नहीं उनकी। पानी मैं डरते-डरते पीता हूँ कि कहीं वे गुण धुल न जायं।
निंदक नेड़ा राखिये, आंगणि कुटी बंधाइ।
बिन साबण पाणी बिना, निरमल करै सुभाइ॥6॥
भावार्थ - अपने निन्दक को अपने पास ही रखना चाहिए, आंगन में उसके लिए कुटिया भी बना देनी चाहिए। क्योंकि वह सहज ही बिना साबुन और बिना पानी के धो-धोकर निर्मल बना देता है।
न्यंदक दूर न कीजिये, दीजै आदर मान।
निरमल तन मन सब करै, बकि बकि आनहिं आन॥7॥
भावार्थ - अपने निन्दक को कभी दूर न किया जाय, आँखों में ही उसे बसा लिया जाय। उसे मान-सम्मान दे दिया जाय। तन और मन को, क्योंकि वह निर्मल कर देता हैं। निन्दा कर-कर अवसर देता है हमें अपने आपको देखने-परखने का।
`कबीर' आप ठगाइए और न ठगिये कोइ।
आप ठग्यां सुख ऊपजै, और ठग्यां दुख होइ॥8॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -- खुद तुम भले ही ठगाये जाओ, पर दूसरों को नहीं ठगना चाहिए। खुद के ठगे जाने से आनन्द होता हैं, जब कि दूसरों को ठगने से दुःख।
`कबीर' घास न नींदिए, जो पाऊँ तलि होइ।
उड़ि पड़ै जब आँखि मैं, बरी दुहेली होइ॥9॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - पैरों तले पड़ी हुई घास का भी अनादर नहीं करना चाहिए। एक छोटा-सा तिनका भी उसकी आँख में यदि पड़ गया, तो बड़ी मुश्किल हो जायगी।
करता केरे बहुत गुण, औगुण कोई नाहिं।
जो दिल कोजौं आपणौं, तौ सब औगुण मुझ माहिं॥10॥
भावार्थ - सिरजनहार में गुण-ही-गुण हैं, अवगुण एक भी नहीं। अवगुण ही देखने हैं, तो हम अपने दिल को ही खोजें।
खूंदन तौ धरती सहै, बाढ़ सहै बनराइ।
कुसबद तौ हरिजन सहै, दूजै सह्या न जाइ॥11॥
भावार्थ - धरती को कितना ही खोदो-खादो, वह सब सहन कर लेती है। और नदी तीर के वृक्ष बाढ़ को सह लेते हैं। कटु वचन तो हरिजन ही सहते है, दूसरों से वे सहन नहीं हो सकते।
सीतलता तब जाणियें ,समिता रहै समाइ।
पष छाँड़ै निरपष रहै, सबद न देष्या जाइ॥12॥
भावार्थ - हमारे अन्दर शीतलता का संचार हो गया है, यह समता आ जाने पर ही जाना जा सकता है। पक्ष-अपक्ष छोड़कर जबकि हम निष्पक्ष हो जायं। और कटुवचन जब अपना कुछ भी प्रभाव न डाल सकें।
`कबीर' सिरजनहार बिन, मेरा हितू न कोइ।
गुण औगुण बिहड़ै नहीं, स्वारथ बंधी लोइ॥13॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - मेरा और कोई हितू नहीं सिवा मेरे एक सिरजनहार के। मुझ में गुण हो या अवगुण, वह मेरा कभी त्याग नहीं करता। ऐसा तो दुनियादार ही करते हैं स्वार्थ में बँधे होने के कारण।
साईं एता दीजिए, जामें कुटुंब समाइ।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाइ॥14॥
भावार्थ - ऐ मेरे मालिक! तू मुझे इतना ही दे, कि जिससे एक हद के भीतर मेरे कुटुम्ब की जरूरतें पूरी हो जायं। मैं भी भूखा न रहूँ, और जब कोई भला आदमी द्वार पर आ जाय, तो वह भूखा ही वापस न चला जाय।
नीर पियावत क्या फिरै, सायर घर-घर बारि।
जो त्रिषावन्त होइगा, सो पीवेगा झखमारि॥15॥
भावार्थ - क्या पानी पिलाता फिरता है घर-घर जाकर? अन्तर्मुख होकर देखा तो घर-घर में, घट-घट में, सागर भरा लहरा रहा है। सचमुच जो प्यासा होगा, वह झख मारकर अपनी प्यास बुझा लेगा। [आत्मानन्द का सागर सभी के अन्दर भरा पड़ा है।`तृषावंत' से तात्पर्य है सच्चे तत्त्व-जिज्ञासु से।]
हीरा तहाँ न खोलिये, जहँ खोटी है हाटि।
कसकरि बाँधो गाठरी, उठि करि चालौ बाटि॥16॥
भावार्थ - जहाँ खोटा बाजार लगा हो, ईमान-धरम की जहाँ पूछ न हो, वहाँ अपना हीरा खोलकर मत दिखाओ। पोटली में कसकर उसे बन्द कर लो और अपना रास्ता पकड़ो। [ हीरा से मतलब है आत्मज्ञान से।`खोटीहाट' से मतलब है अनधिकारी लोगों से, जिनके अन्दर जिज्ञासा न हो।]
हीरा परा बजार में, रहा छार लपिटाइ।
ब तक मूरख चलि गये, पारखि लिया उठाइ॥17॥
भावार्थ - हीरा योंही बाजार में पड़ा हुआ था - देखा और अनदेखा भी, धूल मिट्टी से लिपटा हुआ। जितने भी अपारखी वहाँ से गुजरे, वे यों ही चले गये। लेकिन जब सच्चा पारखी वहाँ पहुँचा तो उसने बड़े प्रेम से उसे उठाकर गंठिया लिया
सब काहू का लीजिए, सांचा सबद निहार।
पच्छपात ना कीजिए, कहै `कबीर' बिचार॥18॥
भावार्थ - कबीर खूब विचारपूर्वक इस निर्णय पर पहुँचा है कि जहाँ भी, जिसके पास भी सच्ची बात मिले उसे गांठ में बाँध लिया जाय पक्ष और अपक्ष को छोड़कर।
क्या मुख लै बिनती करौं, लाज आवत है मोहिं।
तुम देखत औगुन करौं, कैसे भावों तोहिं॥19॥
भावार्थ - सामने खड़ा हूँ तेरे, और चाहता हूँ कि विनती करूँ। पर करूँ तो क्या मुँह लेकर, शर्म आती है मुझे। तेरे सामने ही भूल-पर-भूल कर रहा हूँ और पाप कमा रहा हूँ। तब मैं कैसे, मेरे स्वामी, तुझे पसन्द आऊँगा?
सुरति करौ मेरे साइयां, हम हैं भौजल माहिं।
आपे ही बहि जाहिंगे, जौ नहिं पकरौ बाहिं॥20॥
भावार्थ - मेरे साईं! हम पर ध्यान दो, हमें भुला न दो। भवसागर में हम डूब रहे हैं। तुमने यदि हाथ न पकड़ा तो बह जायंगे। अपने खुद के उबारे तो हम उबर नहीं सकेंगे।
माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय॥
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर॥
तिनका कबहुँ ना निंदये, पाँव तले जो होय।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय॥
गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाँय।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय॥
सुख मे सुमिरन ना किया, दु:ख में करते याद।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद॥
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय॥
कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर॥
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर।
आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर॥
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय।
हीरा जन्म अमोल था, कोड़ी बदले जाय॥
दुःख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे, दुःख काहे को होय॥
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर॥
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय॥
साँईं इतना दीजिए, जामें कुटुंब समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय॥
जो तोको काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल।
तोहि फूल को फूल है, बाको है तिरसूल॥
उठा बगुला प्रेम का, तिनका चढ़ा अकास।
तिनका तिनके से मिला, तिन का तिन के पास॥
सात समंदर की मसि, लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं, हरि गुण लिखा न जाइ॥
साधू गाँठ न बाँधई, उदर समाता लेय।
आगे पाछे हरि खड़े, जब माँगे तब देय॥
पीतम को पतियां लिखूं, जो कहूं होये बिदेस ।
तन में मन में नैन में, ताको कहा सन्देस ॥
सोऊं तो सपने मिलूं, जागूं तो मन मांहि ।
लोचन रातें सब घडी, बिसरत कबहू न मांहि ॥
कबीरा सीप समुंद्र की, रते प्यास पियास ।
और बूंद को ना गिहे, स्वाति बूंद की आस ॥
नैनन अन्तर आओ तो, नैन झांक तोहे ल्यूं ।
ना मैं देखूं और को, ना तोहे देखन द्यूं ॥
जात न पूछो साधू की, पूछ लीजिये ग्यान ।
मोल करो तलवार का, पडी रहन दो म्यान ॥
हम तुमहरो सुमिरन करो, तुम मोहे चेतो नांहि ।
सुमिरन मन की प्रीत है, सो मन तुमही मांहि ॥
ज्यूं नैनन में पोतली, यूं मालिक़ घट मांहि ।
मूरख लोग न जाने, बाहर ढूढत जांहि ॥१९२॥
चलती चक्खी देख के, दिया कबीरा रोये ।
दो पट भीतर आईके, साबित गया न कोये ॥
क्या मुखहे बिनती करूं, लाज आवत है मोहे ।
तुम देखत औ-गुन करूं, कैसे भाऊं तोहे ॥
मरिये तो मर जाइये, छूट पड़े जग जार ।
ऐसे मरना तो मरे, दिन में सौ सौ बार ॥
सबद सबद सब कोइ कहे, सबद के हाथ न पांव ।
एक सबद औशुध करे, एक सबद किर घाव ॥
माला तो कर में फिरे, जीभ फिरे मुख मांहि ।
मनवा तो चहूं दिस फिरे, ये तो सुमिरन नांहि ॥
उठा बगोला प्रेम का, तिनका उड़ा आकास ।
तिनका तिनका से मिला, तिनका तिनके पास ॥
नैनन की कर कोठड़ी, पुतरी पलंग बिछाय ।
पलकों की चित डाल के, पी को लिया रिझाय ॥
हरि से तो जन हेत कर, कर हरि-जन से हेत ।
माल मिलत हरि देत है, हरि-जन हरि ही देत ॥
कबीरा संगत साधु की, जौं की भूसी खाय ।
खीर खांड भोजन मिले, साकत संग न जाये ॥